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#बस्ती विद्रोह की गूंज: महुली-हरिहरपुर के जगत बहादुर पाल का स्वतंत्रता संग्राम में अमर योगदान

Freedom fighter from Basti

बस्ती, उत्तर प्रदेश/अस्कोट, उत्तराखंड – 13 अक्टूबर 2025
‘देवभूमि के लोग’ विशेष -भानु प्रताप सिंह, अस्कोट और अखिलेश बहादुर पाल, महुसो

उत्तर प्रदेश के बस्ती और सिद्धार्थनगर जिलों के बीच बसी महुली-हरिहरपुर की ऐतिहासिक भूमि आज भी 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की गूंज से गूंजती है। यहां के सूर्यवंशी क्षत्रिय पाल राजवंश के वीरों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ जिस अदम्य साहस और बलिदान का परिचय दिया, वह भारतीय इतिहास की एक अनमोल कड़ी है। लेखक अखिलेश बहादुर पाल और भानु प्रताप सिंह की कलम से उकेरी गई यह गाथा स्थानीय परंपराओं, ऐतिहासिक अभिलेखों और गजेटियरों पर आधारित है, जो ब्रिटिश शासन के साथ टकराव, मजबूरी के समझौते और शहीदों की कहानी को जीवंत करती है।

पाल राजवंश, जो प्राचीन कत्यूरी सूर्यवंशी वंश से अपनी उत्पत्ति मानता है, मूल रूप से उत्तराखंड की देवभूमि से जुड़ा रहा है। सातवीं से ग्यारहवीं शताब्दी तक उत्तराखंड और नेपाल के पश्चिमी भागों पर शासन करने वाले इस वंश के वंशज बाद में उत्तर प्रदेश के बस्ती क्षेत्र में बस गए। महुली-हरिहरपुर का क्षेत्र अवध (औध) साम्राज्य के अधीन था, जहां ये शासक स्थानीय स्तर पर सांस्कृतिक, सामाजिक और रणनीतिक प्रभाव रखते थे। 19वीं सदी में जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अवध पर कब्जा जमाना शुरू किया, तो इन सूर्यवंशी क्षत्रियों ने अपनी जमींदारी और सामुदायिक निष्ठा के बल पर विद्रोह का बिगुल फूंका।

1857 के विद्रोह में पाल राजवंश की भूमिका

1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम, जिसे ‘सिपाही विद्रोह’ या ‘महान विद्रोह’ के नाम से जाना जाता है, बस्ती क्षेत्र में भी गूंजा। यहां के पाल राजवंश के तीन प्रमुख योद्धा—जगत बहादुर पाल, शक्त बहादुर पाल (जिन्हें कुछ अभिलेखों में ‘सकत बहादुर पाल’ कहा गया है) और नरेंद्र बहादुर पाल—ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ खुला विरोध किया। बस्ती डिस्ट्रिक्ट गजेटियर (1907 संस्करण) में हैंसर गांव के संदर्भ में वर्णन है कि “हैंसर लाल जगत बहादुर नामक एक सुरजबंसी का था; लेकिन उसके विद्रोह के कारण, संपत्ति जब्त कर वफादारों को दे दी गई”। यह ‘लाल जगत बहादुर’ संभवतः जगत बहादुर पाल ही थे, जिन्होंने ब्रिटिश सेना के खिलाफ लड़ते हुए स्थानीय मिलिशिया का गठन किया और राजस्व वसूली का विरोध किया।

जगत बहादुर पाल को उनके नेतृत्व के लिए विशेष रूप से याद किया जाता है। उन्होंने ब्रिटिश आदेशों का बहिष्कार किया और स्थानीय विद्रोहियों को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके भाई शक्त बहादुर पाल ने युद्ध में शहादत प्राप्त की, जिससे वे एक शहीद के रूप में अमर हो गए। नरेंद्र बहादुर पाल ने भी विद्रोह में हिस्सा लिया, हालांकि उनके बारे में अभिलेख सीमित हैं। फ्रीडम स्ट्रगल इन उत्तर प्रदेश (खंड 4, गोरखपुर-बस्ती डिवीजन) में बस्ती क्षेत्र की भूमिका का वर्णन है, जहां तालुकेदारों ने ब्रिटिश अधिकारियों पर हमले किए, राजस्व देने से इंकार किया और क्रांतिकारियों को आश्रय प्रदान किया। पाल वंश की जागीरें जब्त होने के बावजूद, उनकी देशभक्ति की भावना अटूट रही।

ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि 1857 के दौरान बस्ती में अराजकता का माहौल था। ब्रिटिश अधिकारियों ने विद्रोहियों को दबाने के लिए कठोर कदम उठाए—गांवों को जलाया गया, संपत्तियां जब्त की गईं और कई नेताओं को फांसी दी गई। बस्ती गजेटियर में महुआ डबर जैसे गांवों का उल्लेख है, जो विद्रोहियों को आश्रय देने के कारण नष्ट कर दिए गए। पाल परिवार की कुछ जागीरें भी जब्त हुईं, लेकिन बाद में क्षमादान के तहत ‘सीमित जमींदारी अधिकार’ के रूप में कुछ हिस्से लौटाए गए। फिर भी, उनकी सूर्यवंशी क्षत्रिय छवि देशभक्त के रूप में बरकरार रही।

ब्रिटिश संपर्क: दबाव और समझौते

1857 के विद्रोह के बाद, ब्रिटिशों ने 1856 में अवध का पूर्ण अधिग्रहण कर लिया। स्थानीय कुलीनों को नियंत्रित करने के लिए उन्होंने रणनीतिक संपर्क शुरू किए। यह मित्रता नहीं, बल्कि प्रशासनिक दबाव था। ब्रिटिश कलेक्टरों और पॉलिटिकल एजेंट्स ने पाल राजाओं से मुलाकातें कीं, ताकि क्षेत्र में शांति बनाए रखी जाए और राजस्व वसूली सुनिश्चित हो। ऐतिहासिक दस्तावेज़ बताते हैं कि ब्रिटिश वायसराय या उनके प्रतिनिधियों ने इन ठाकुरों से ‘निष्ठा की शपथ’ दिलवाई। बदले में, कुछ परिवारों को ‘सनद’ (पट्टा) दी गई, जिसके तहत महुली-हरिहरपुर के पाल वंशजों को सीमित जमींदारी अधिकार प्राप्त हुए।

यह ब्रिटिश रणनीति का हिस्सा था, ताकि भविष्य में विद्रोह की संभावना को रोका जा सके। गोरखपुर अभिलेखों में बस्ती के 1857 के दौरान अराजकता का वर्णन है। आजमगढ़-जौनपुर सीमा पर सक्रिय पुलवार राजपूतों की तरह, पाल राजवंश ने भी विद्रोही गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हालांकि, दबाव में कुछ समझौते करने पड़े, लेकिन उनकी विरासत राष्ट्रीय इतिहास में क्षेत्रीय पहचानों पर चर्चा को प्रेरित करती है।

ऐतिहासिक अभिलेख और स्रोत

इस इतिहास का अधिकांश हिस्सा औपनिवेशिक गजेटियरों और स्वतंत्रता संग्राम के दस्तावेजों में संरक्षित है। बस्ती डिस्ट्रिक्ट गजेटियर (1907 संस्करण) और औध गजेटियर में हरिहरपुर-महुली के राजाओं के ब्रिटिश प्रशासन के साथ संपर्क का उल्लेख है, विशेष रूप से राजस्व समझौतों और निष्ठा-पत्रों के संदर्भ में। फ्रीडम स्ट्रगल इन उत्तर प्रदेश (खंड 4) में क्षेत्र की भूमिका का वर्णन है, जिसमें शियो गोलम सिंह और मोहम्मद हुसैन जैसे नेताओं के विद्रोही हमलों का जिक्र है। एपिग्राफिया इंडिका (खंड 31) क्षेत्रीय राजवंशों के लिए एपिग्राफिक जानकारी प्रदान करता है, हालांकि महुली के लिए प्रत्यक्ष संदर्भ सीमित हैं।

खीरी जैसे समीपवर्ती क्षेत्रों के सूर्यवंशी वंशों का भी उल्लेख मिलता है, जो उनकी प्राचीनता और औपनिवेशिक अनुकूलन को दर्शाता है। स्थानीय कथाएं और अभिलेख उन्हें एक देशभक्त के रूप में चित्रित करते हैं।

अमर विरासत और आज का संदेश

आज, जब भारत अपनी स्वतंत्रता की 78वीं वर्षगांठ मना रहा है, महुली-हरिहरपुर के सूर्यवंशी राजाओं की कहानी स्वतंत्रता आंदोलन में स्थानीय नायकों की याद दिलाती है। जगत बहादुर पाल का अडिग रुख और शक्त बहादुर पाल का बलिदान उन्हें ‘वीर सूर्यवंशी क्षत्रिय’ के रूप में अमर बनाता है। ब्रिटिश संपर्क भले ही दबाव का परिणाम थे, लेकिन वे इस राजवंश के प्रभाव को रेखांकित करते हैं।

इतिहासकारों का मानना है कि “ये संपर्क मित्रता नहीं, बल्कि साम्राज्यवादी दबाव में जीवित रहने की रणनीति थे।” बस्ती में हरिहरपुर स्थलों पर आयोजित वार्षिक समारोह इस ज्योति को जीवित रखते हैं, जो गुमनाम नायकों को याद करने की आवश्यकता पर बल देते हैं। गहन जानकारी के लिए, बस्ती डिस्ट्रिक्ट गजेटियर या फ्रीडम स्ट्रगल खंड जैसे स्रोत विशिष्ट उद्धरण प्रदान करते हैं—पृष्ठ जो राजस्व विवादों और विद्रोही सहानुभूति को जीवंत करते हैं।

जैसे-जैसे उत्तर प्रदेश अपनी धरोहर को संजोता है, महुली-हरिहरपुर की गाथा औपनिवेशिक शक्ति के खिलाफ साहस की प्रतीक बनी हुई है। यह कहानी देवभूमि उत्तराखंड से जुड़ी कत्यूरी विरासत को भी रेखांकित करती है।

By devbhoomikelog.com

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