उत्तराखंड की विशेष रूप से कमजोर जनजाति (PVTG) वन राजी समुदाय ने अपनी लंबित मांगों को लेकर देहरादून में आवाज बुलंद की। लगभग 600 किलोमीटर की दूरी तय कर पहुँचे इस समुदाय के प्रतिनिधियों ने भूमि अधिकार, आजीविका और बुनियादी सुविधाओं की कमी को लेकर प्रशासन का ध्यान आकर्षित किया।
वन राजी समुदाय मुख्य रूप से पिथौरागढ़ जिले के नौ गांवों, चंपावत और उधम सिंह नगर के एक-एक गांव में निवास करता है। कुल 11 गांवों में बसे इस समुदाय की आबादी करीब 1,075 है, जो विलुप्ति के कगार पर मानी जा रही है।
समुदाय के लगभग 20 युवा पुरुष और महिलाएं देहरादून पहुँचे और मीडिया के समक्ष अपनी समस्याएं रखीं। उन्होंने बताया कि वन अधिकार अधिनियम (FRA) 2006 के तहत मिले कागजी पट्टों को अब तक राजस्व रिकॉर्ड में दर्ज नहीं किया गया है, जिससे उन्हें कानूनी सुरक्षा नहीं मिल पा रही। वहीं, सामुदायिक वन अधिकार (CFR) पर अन्य प्रभावशाली समूहों के नियंत्रण के कारण वन संसाधनों तक उनकी पहुँच बाधित हो रही है।
प्रतिनिधियों ने डीडीहाट ब्लॉक के कुटाचुरा और मदनपुरा गांवों में पंचायत चुनाव रद्द होने का मुद्दा भी उठाया। उन्होंने कहा कि दो-बच्चे की शर्त और शैक्षिक योग्यता के कारण आरक्षित श्रेणी की महिलाओं को चुनाव लड़ने से वंचित किया गया, जबकि समुदाय में साक्षरता दर पहले से ही बेहद कम है।
प्रमुख मांगें
- भूमि अधिकारों का पूर्ण क्रियान्वयन और राजस्व रिकॉर्ड में स्थानांतरण
- सुरक्षित आजीविका के अवसर
- शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता
- सड़क, पेयजल और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाएं
वन राजी प्रतिनिधियों ने फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट, उत्तराखंड राज्य महिला आयोग और मानवाधिकार आयोग के अधिकारियों से मुलाकात कर अपनी समस्याएं रखीं।
अर्पण संगठन और रेणु ठाकुर की भूमिका
इस पूरे प्रयास में पिथौरागढ़ स्थित सामाजिक संगठन एसोसिएशन फॉर रूरल प्लानिंग एंड एक्शन (अर्पण) की अहम भूमिका रही। संगठन की संस्थापक रेणु ठाकुर ने कहा कि वन राजी समुदाय की स्थिति शासन-प्रशासन की गंभीर विफलता को दर्शाती है और तत्काल संवेदनशील हस्तक्षेप की जरूरत है।
उन्होंने बताया कि अर्पण लंबे समय से वन राजी समुदाय के भूमि अधिकार, महिला सशक्तिकरण, पंचायत भागीदारी और आजीविका के लिए कार्य कर रहा है। हालिया सर्वेक्षणों में समुदाय की सामाजिक और आर्थिक कमजोरियों को उजागर कर सरकार को ठोस सुझाव भी दिए गए हैं।
वन राजी समुदाय का यह संघर्ष उत्तराखंड सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती है। विशेष रूप से कमजोर जनजातियों के अधिकारों की रक्षा न केवल संवैधानिक दायित्व है, बल्कि सांस्कृतिक विविधता को बचाने की जिम्मेदारी भी।
