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उत्तराखंड में वन आवरण में गिरावट और बढ़ता तापमान: दोहरा संकट

Forest fires in uttarakhand

देहरादून, 23 जून 2025

उत्तराखंड, जिसे “देवभूमि” के नाम से जाना जाता है, आज अपने घटते वन आवरण और बढ़ते तापमान के कारण गंभीर संकट का सामना कर रहा है। भारतीय वन सर्वेक्षण (FSI) की 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, राज्य का वन आवरण 24,303.83 वर्ग किमी है, जो 2021 की तुलना में 22.98 वर्ग किमी कम है। इसके साथ ही, मौसम विभाग के आंकड़े बताते हैं कि पिछले एक दशक में उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में औसत तापमान में 1.5°C से अधिक की वृद्धि हुई है, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र पर दबाव बढ़ा है।

बढ़ते तापमान और वनों की कटाई: एक खतरनाक चक्र

मौसम वैज्ञानिक डॉ. मनोज कुमार के अनुसार, “उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों, विशेषकर नैनीताल, अल्मोड़ा और मसूरी में तापमान में निरंतर वृद्धि हो रही है। यह वनों की कटाई, जलवायु परिवर्तन और अनियोजित विकास का परिणाम है।”

  • 2025 में रिकॉर्ड तापमान: इस साल जून में नैनीताल का अधिकतम तापमान 32°C तक पहुँच गया, जो सामान्य से 4°C अधिक है।
  • ग्लेशियर पिघलने की रफ्तार बढ़ी: बढ़ते तापमान के कारण हिमालयी ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, जिससे नदियों में जलस्तर अनियमित हो रहा है।
  • जंगल की आग में वृद्धि: तापमान बढ़ने से सूखा बढ़ा है, जिससे जंगल की आग की घटनाएँ भी बढ़ी हैं। 2025 में अब तक 500 से अधिक आग की घटनाएँ दर्ज की गई हैं।

प्रशासनिक लापरवाही के प्रमुख कारण

1. अवैध कटाई पर नियंत्रण नहीं

उत्तराखंड में वन माफिया और अवैध कटाई की घटनाएँ बढ़ रही हैं, लेकिन प्रशासन इस पर प्रभावी अंकुश लगाने में विफल रहा है। स्थानीय निवासियों का आरोप है कि भ्रष्टाचार और कानूनी प्रक्रिया की धीमी गति के कारण दोषी बच निकलते हैं।

2. जंगल की आग पर नियंत्रण नहीं

2025 की गर्मियों में भी जंगल की आग की कई घटनाएँ सामने आई हैं, लेकिन प्रशासन के पास कोई ठोस रोकथाम योजना नहीं है। अग्निशमन उपकरणों और प्रशिक्षित कर्मियों की कमी ने स्थिति को और बिगाड़ दिया है।

3. विकास परियोजनाओं के नाम पर वनों का विनाश

सड़कों, होटलों और जलविद्युत परियोजनाओं के लिए पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA) को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। शहरीकरण और पर्यटन को बढ़ावा देने के चक्कर में वन संरक्षण पीछे छूट गया है।

वन विभाग की अक्षमता

  • निगरानी प्रणाली कमजोर: ड्रोन और सैटेलाइट मॉनिटरिंग जैसी आधुनिक तकनीकों का अभाव है।
  • पुनर्वनन अभियान विफल: वृक्षारोपण के बाद पौधों की देखभाल नहीं होती, जिससे मृत्यु दर अधिक है।
  • स्थानीय समुदायों को नजरअंदाज किया गया: वन पंचायतों के साथ समन्वय की कमी के कारण संरक्षण प्रयास प्रभावी नहीं हो पा रहे हैं।

राज्य पर पड़ रहा प्रभाव

  • पर्यावरणीय संकट: वनों की कटाई और बढ़ते तापमान से मिट्टी का कटाव, जल स्रोतों का सूखना और बाढ़ का खतरा बढ़ा है।
  • आर्थिक नुकसान: पर्यटन और वन आधारित उद्योग प्रभावित हो रहे हैं, जिससे राजस्व में कमी आई है।
  • सामाजिक असर: वनों पर निर्भर ग्रामीणों की आजीविका खतरे में है।

विशेषज्ञों की राय

पर्यावरणविद् डॉ. अनिल जोशी का कहना है, “उत्तराखंड सरकार को तत्काल वन संरक्षण और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए एकीकृत नीति बनानी चाहिए। तकनीक और स्थानीय भागीदारी से ही स्थिति सुधर सकती है।”

उत्तराखंड के वन तेजी से घट रहे हैं और तापमान लगातार बढ़ रहा है। अगर समय रहते कड़े कदम नहीं उठाए गए, तो राज्य को भविष्य में गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। प्रशासन और वन विभाग को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी, अन्यथा “हरित उत्तराखंड” का सपना धूमिल हो जाएगा।

रिपोर्ट:   कविंद्र मोहन, स्थानीय संवाददाता

By devbhoomikelog.com

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